एक गुप्त एवं रहस्यमयी विद्या – एक पौराणिक कथा

एक गुप्त एवं रहस्यमयी विद्या

महर्षि दधीचि जिन्होंने अपने शरीर की हड्डियां देवताओं को दान कर दी थी जिससे देवताओं ने कई अस्त्रों – शास्त्रों का निर्माण किया और दानवों को युद्ध में हरा कर उनपर विजय प्राप्त की, वही महर्षि दधीचि तपोवन में अपना आश्रम बनाकर रहते थे। वे सदा अपनी तपस्या में लीन रहा करते थे।  उन्हें मधु विद्या नाम की एक गुप्त एवं रहस्यमय विद्या का ज्ञान था, जिसे वे बहुत सोच समझकर कर ही किसी को देते थे, क्योंकि उन्हें यह भली भांति ज्ञात था कि यदि किसी अयोग्य व्यक्ति को उस विद्या को दे दिया तो वह ब्यक्ति उसका दुरुप्रयोग कर सकता है और साथ ही उन्हें भी उसके दोष का भागी होना पड़ेगा।

एक बार देवराज इन्द्र भेस बदल कर अतिथि बन कर उनके तपोवन में पहुँचे और महर्षि से बोले- ऋषिवर मैं आपके यहाँ अतिथि बन कर आया हूँ क्या आप मेरी इच्छा को पूरा करेंगे। महर्षि ने पूछा- “आप कौन हैं और मेरे आश्रम में किस प्रयोजन से आये हैं।  इन्द्र ने कहा- पहले आप मुझे यह वचन दीजिए कि आप अपने अतिथि की इच्छा को अवश्य पूरा करेंगे। महर्षि जानते थे कि अतिथि की इच्छा को पूर्ण करना प्रत्येक गृहस्थ का धर्म होता है, अतः महर्षि ने उनकी इच्छा को पूरा करने का वचन दिया और कहा – अतिथि जैसा चाहेगा वैसा ही होगा। तब इन्द्र अपने असली स्वरुप में आ गए और कहा- ऋषिवर! मैं इन्द्र हूँ तथा आपसे मधु विद्या सीखने कि इच्छा से आपके पास आया हूँ। यह जानकर कि वो अतिथि इंद्र है, महर्षि बहुत पछताए। क्योंकि इन्द्र को वे उस विद्या के योग्य नहीं समझते थे। महृषि जानते थे कि इन्द्र तो स्वर्ग के भोगों के राजा हैं, वे हर समय या तो अप्सराओं के नाच- गाने में व्यस्त रहते हैं या फिर इस चिन्ता में लगे रहते हैं कि कोई महान तपस्वी इतनी अधिक तपस्या न कर ले कि उनसे उनका सिंहासन ही छीन ले।

इंद्र जो करते हैं वो साधु पुरुषों के काम नहीं हैं, लेकिन अब हो भी क्या सकता था, महृषि ने अपने वचन का पालन करते हुए  इन्द्र को मधु विद्या सिखा दी, लेकिन उनके छलपूर्वक वायदा करा लेने से क्षुब्ध होकर क्रोध में यह भी कह डाला कि जिनके मन में अनेक प्रकार की इच्छाएं भरी पड़ी हों, वह श्रेष्ठतम विद्या को पाने के पश्चात् भी कुछ नहीं कर सकता। ऐसा व्यक्ति चाहे स्वर्ग का राजा इन्द्र हो या संसार का एक निकृष्ट कुत्ता दोनों में कोई अंतर नहीं है। देवराज को यह सुनकर बड़ा क्रोध आया कि महर्षि ने उनकी तुलना संसार के एक कुत्ते से की है, इसलिए क्रोधवश वो महृषि से बोले – अब यदि आपने इस विद्या को किसी और को सिखाया तो आपका सिर आपके धड़ से अलग हो जाएगा।” महर्षि ने चुपचाप इस श्राप को सुन लिया और वे शांत रहे, उनके मन पर इसका कोई प्रभाव नहीं पड़ा। इंद्र के जाने के पश्चात् महृषि अपनी नियमित जीवन प्रणाली में लग गए।

कुछ दिनों पश्चात वैदिक काल के प्रसिद्ध वैद्य दो जुड़वा भाई अश्विनी कुमार उनके पास आए और बोले- “ऋषिवर! हमारा सारा जीवन परोपकार के लिए ही है, हमने अबतक न जाने कितने पीड़ित व्यक्तियों के कष्टों को दूर किया है तथा अनेक रोगियों को निरोगी किया है। हम किसी को भी कष्ट में नहीं देख सकते, दूसरों के कष्टों का निवारण करना ही हमारे जीवन का उद्येश्य है,  इसलिए हम मधु विद्या का ज्ञान प्राप्त करने के सच्चे अधिकारी और सुपात्र हैं, कृपा करके आप हमें मधु विद्या का रहस्य समझाइए, हम सदा आपके ऋणी रहेंगे।”

अश्विनी कुमारों की बात सुनकर महर्षि के मन में उलझन पैदा हो गई। उन्होंने सोचा कि यदि वे इन सुपात्र व्यक्तियों को विद्या प्रदान नहीं करते तो यह एक नैतिक अपराध होगा और यदि वे इस ज्ञान को उन्हें देते हैं तो उनका सिर धड़ से अलग हो जाएगा। क्या करें और क्या न करें। आख़िरकार परिणाम की चिंता न करते हुए उन्होंने ज्ञान देने का निश्चय किया और साथ ही अपनी समस्या भी अश्विनी कुमारों के सामने रखी। महर्षि की समस्या जान कर अश्विनी कुमार बोले- “भगवन्, इस समस्या का हल हमारे पास है, हम संजीवनी विद्या जानते हैं जिससे किसी भी मरे हुए व्यक्ति को फिर से जीवित कर सकते हैं। हम अपनी संजीवनी विद्या की शक्ति से पहले आपका सिर अलग करके सुरक्षित रख देंगे तत्पश्चात एक घोड़े का सिर आपको लगा देंगे। आप उस घोड़े के मुख से मधु विद्या का ज्ञान हमें दे दीजियेगा और जब आपका घोड़े का सिर देवराज इंद्र के श्राप के कारण आपके धड़ से अलग हो जाएगा तब हम आपके असली सिर को आपके धड़ के साथ जोड़ देंगे और आपको मरने नहीं देंगे। यही हुआ, महर्षि ने घोड़े के मुख से मधु विद्या का ज्ञान अश्विनी कुमारों को दिया और उसके देते ही उनका घोड़े का सिर अलग हो गया। तब अश्विनी कुमारों ने असली सिर को उनके धड़ से जोड़ दिया और वे पुनः जीवित हो उठे।

इसी बीच देवराज इंद्र को भी अपनी भूल का अहसास हो चुका था, वे बहुत पछताए और शीघ्र ही महर्षि के पास उपस्थित हुए और अपने अपराध की क्षमा मांगने लगे। महर्षि बोले- देवराज ! मेरे हृदय में आपके प्रति कोई रोष नहीं है। मैंने तो अपने वचन के अनुसार आपको मधु विद्या सिखाई थी। जो कुछ भी आपने कहा अथवा मेरे साथ किया, मैं उसे भूल चुका हूँ। आपके हृदय में अभिमान था, इसलिए ज्ञान प्राप्त करने के बाद भी आप उसका कोई लाभ नहीं उठा सकते थे। ज्ञानवान व्यक्ति के लिए विनम्र होना अति-आवश्यक होता है। मैंने तो आपकी परीक्षा लेने के लिए ही कड़वी बातें कही थी लेकिन आप उस परीक्षा में असफल रहे। अब आपने क्षमा मांग कर अपनी भूल का पश्चात्ताप कर लिया है, इसलिए आप अपराधी नहीं हैं। मेरे घोड़े का सिर एक तालाब में छिपा हुआ है। यदि आपका कोई कार्य उससे सिद्ध होता हो तो आप उसे निकाल कर प्रयोग कर लीजिये।

कहते हैं कि देवराज इंद्र घोड़े के उस सिर को निकाल लाये और उससे और अधिक ज्ञान प्राप्त कर के भिन्न – भिन्न  प्रकार के अस्त्र-शास्त्रों का निर्माण किया जिनसे वो देवताओं के शत्रुओं को पराजित कर सके।

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